Friday, July 27, 2012

श्री वल्लभाचार्य

श्री वल्लभाचार्य
श्री नाथ जी के आराध्य महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य सन् १४७८ में वैशाख कृष्ण एकादशी को हुआ।  कांकरवाड निवासी लक्ष्मण भट्ट की द्वितीय पत्नी इल्लभा ने आपको जन्म दिया।  काशी में जतनबर में आपने शुद्धाद्वेैत ब्रह्मवाद का प्रचार किया और वेद रुपी दधि से प्राप्त नवनीत रुप पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया।  आपका विवाह काशी के श्री देवभ की पुत्री महालक्ष्मी से हुआ जिनसे उन्हें दो पुत्र गोपीनाथ और विट्ठलेश हुए।  आपने ८४ लाख योनी में भटकते जीवों के उद्धारार्थ ८४ वैष्णव ग्रन्थ, ८४ बैठके और ८४ शब्दों का ब्रह्म महामंत्र दिया।  काशी में अपने आराध्य को वर्तमान गोपाल मंदिर में स्थापित किया और सन् १५३० में संन्यास ले लिया।  हनुमान् घाट पर आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को गंगा में जल समाधि ले ली।
आचार्यपाद श्री वल्लभाचार्य का जन्म चम्पारण्य में रायपुर मध्यप्रान्त में हुआ था।  वे उत्तारधि तैलंग ब्राह्मण थे।  इनके पिता लक्ष्मण भट्टजी की सातवीं पीढ़ी से ले कर सभी लोग सोमयज्ञ करते आये थे।  कहा जाता है कि जिसके वंश में सौ सोमयज्ञ कर लिए जाते हैं, उस कुल में महापुरुष का जन्म होता है।  इसी नियम के साक्ष्य के रुप में श्री लक्ष्मण भ के कुल में सौ सोमयज्ञ पूर्ण हो जाने से उस कुल में श्री वल्लाभाचार्य के रुप में भगवान् का प्रादुर्भाव हुआ।  कुछ लोग उन्हें अग्निदेव का अवतार मानते हैं।  सोमयज्ञ की पूर्कित्त के उपलक्ष्य में लक्ष्मण भ जी एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने के उद्देश्य से सपरिवार काशी आ रहे थे तभी रास्ते में श्री वल्लभ का चम्पारण्य में जन्म हुआ।  बालक की अद्भुत प्रतिभा तथा सौन्दर्य देख कर लोगों ने उसे 'बालसरस्वती वाक्पति' कहना प्रारंभ कर दिया।  काशी में ही अपने विष्णुचित् तिरुमल्ल तथा माधव यतीन्द्र से शिक्षा ग्रहण की तथा समस्त वैष्णव शास्रों में पारंगत हो गये।
काशी से आप वृन्दावन चले गये।  फिर कुछ दिन वहाँ रह कर तीर्थाटन पर चले गये।  उन्होंने विजयनगर के राजा कृष्णदेव की सभा में उपस्थित हो कर बड़े-बड़े विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित किया।  यहीं उन्हें वैष्णवाचार्य की उपाधि से विभूषित किया गया।
राजा ने उन्हें स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर उनका साङ्गोपाङ्ग पूजन किया तथा स्वर्ण राशि भेंट की। उसमें से कुछ भाग ग्रहण कर उन्होंने शेष राशि उपस्थित विद्वानों और ब्राह्मणों में वितरित कर दी।
श्री वल्लभ वहां से उज्जैन आये और क्षिप्रा नदी के तट पर एक अश्वत्थ पेड़ के नीचे निवास किया।  वह स्थान आज भी उनकी बैठक के रुप में विख्यात है।  मथुरा के घाट पर भी ऐसी ही एक बैठक है और चुनार के पास उनका एक मठ और मन्दिर है।  कुछ दिन वे वृन्दावन में रह कर श्री कृष्ण की उपासना करने लगे।
भगवान् उनकी आराधना से प्रसन्न हुए और उन्हें बालगोपाल की पूजा का प्रचार करने का आदेश दिया।  अट्ठाईस वर्ष की अवस्था में उन्होंने विवाह किया।  कहा जाता है कि उन्होंने भगवान् कृष्ण की प्रेरणा से ही 'ब्रह्मसूत्र' के ऊपर 'अणुभाष्य' की रचना की।  इस भाष्य में आपने शाङ्कर मत का खण्डन तथा अपने मत का प्रतिपादन किया है।
आचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना की।  उन्होंने श्रीमद्भागवत् में वर्णित श्रीकृष्ण की लीलाओं में पूर्ण आस्था प्रकट की।  उनकी प्रेरणा से स्थान-स्थान पर श्रीमद्भागवत्  का पारायण होने लगा।  अपने समकालीन श्री चैतन्य महाप्रभु से भी उनकी जगदीश्वर यात्रा के समय भेंट हुई थी।  दोनों ने अपनी ऐतिहासिक महत्ता की एक दूसरे पर छाप लगा दी।  उन्होनें ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत् तथा गीता को अपने पुष्टिमार्ग का प्रधान साहित्य घोषित किया।  परमात्मा को साकार मानते हुए उन्होंने जीवात्मक तथा जड़ात्मक सृष्टि निर्धारित की।  उनके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं।
संसार की अंहता और ममता का त्याग कर श्रीकृष्ण के चरणों में सर्व अर्पित कर भक्ति के द्वारा उनका अनुग्रह प्राप्त करना ही ब्रह्म संबंध है।  श्री वल्लभ ने बताया कि गोलोकस्थ श्रीकृष्ण की सायुज्य प्राप्ति ही मुक्ति है।  आचार्य वल्लभ ने साधिकार सुबोधिनी में यह मत व्यक्त किया है कि प्राणिमात्र को मोक्ष प्रदान करने के लिये ही भगवान् की अभिव्यक्ति होती है -
       गृहं सर्वात्मना त्याज्यं तच्चेत्यक्तुं नशक्यते।
       कृष्णाथर्ं तत्प्रयुञ्जीत कृष्णोऽनर्थस्य मोचक:।।
उनके चौरासी शिष्यों में प्रमुख सूर, कुम्भन, कृष्णदास और परमानन्द श्रीनाथ जी की सेवा और कीर्त्तन करने लगे।  चारों महाकवि उनकी भक्ति कल्पलता के अमर फल थे।
उनका समग्र जीवन चमत्कार पूर्ण घटनाओं से ओतप्रोत था।  गोकुल में भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये थे।
श्री वल्लभाचार्य महान् भक्त होने के साथ-साथ दर्शनशास्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे।  उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, भागवत् की सुबोधिनी व्याख्या, सिद्धान्त-रहस्य, भागवत् लीला रहस्य, एकान्त-रहस्य, विष्णुपद, अन्त:करण प्रबोध, आचार्यकारिका, आनन्दाधिकरण, नवरत्न निरोध-लक्षण और उसकी निवृत्ति, संन्यास निर्णय आदि अनेक ग्रंथों की रचना की।
वल्लभाचार्य जी के परमधाम जाने की घटना प्रसिद्ध है।  अपने जीवन के सारे कार्य समाप्त कर वे अडैल से प्रयाग होते हुए काशी आ गये थे।  एक दिन वे हनुमान् घाट पर स्नान करने गये।  वे जिस स्थान पर खड़े हो कर स्नान कर रहे थे वहाँ से एक उज्जवल ज्योति-शिखा उठी और अनेक लोगों के सामने श्री वल्लभाचार्य सदेह ऊपर उठने लगे।  देखते-देखते वे आकाश में लीन हो गये।  हनुमान घाट पर उनकी एक बैठक बनी हुई है।  उनका महाप्रयाण वि.सं. १५८३ आषाढ़ शुक्ल ३ को हुआ।  उनकी आयु उस समय ५२ वर्ष थी।

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