
’Pushti’ means: grace. An overwhelming grace of Krishna through which Pushti-beings receive sentiment of devotion and subsequently become capable to perform devotion of Shri Krishna without keeping any worldly temptations or desire. Only through the path of devotion one can obtain the Supreme Brahma Shri Krishna; not through the paths of action, knowledge or Upasana. So, from the viewpoint of fruit, “the devotional path of Pushti’’ is the best of all paths.
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Saturday, July 28, 2012
Monday, May 21, 2012
श्रीनाथ जी प्राकट्य
श्रीनाथ जी प्राकट्य
विक्रम संवत् १४६६ ई. स. १४०९ की श्रावण कृष्ण तीज रविवार के दिन सूर्योदय
के समय श्री गोवर्धननाथ का प्राकट्य गिरिराज गोवर्धन पर हुआ। यह वही
स्वरूप था जिस स्वरूप से इन्द्र का मान-मर्दन करने के लिए भगवान्,
श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों की पूजा स्वीकार की और अन्नकूट की सामग्री आरोगी
थी।श्री गोवर्धननाथजी के सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य एक साथ नहीं हुआ था
पहले वाम भुजा का प्राकट्य हुआ, फिर मुखारविन्द का और बाद में सम्पूर्ण
स्वरूप का प्राकट्य हुआ।
श्रीनाथ जी प्राकट्य कथा
१.
श्री नाथ जी की वाम भुजा का प्राकट्य - जब आस पास के ब्रजवासियों की गायें
घास चरने श्रीगोवेर्धन पर्वत पर जाती थी तब श्रावण शुक्ल पंचमी (नागपंचमी)
सं. १४६६ के दिन सद्द् पाण्डे की घूमर नाम की गाय को खोजने गोवर्धन पर्वत
पर गया, तब उन्हें श्री गोवर्द्धनाथजी की ऊपर उठी हुई वाम भुजा के दर्शन
हुए. उसने अन्य ब्रजवासियों को बुलाकर ऊर्ध्व वाम भुजा के दर्शन करवाये। तब
एक वृद्ध ब्रजवासी ने कहा की भगवान् श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन को बाये
हाथ की अंगुली पर उठाकर इन्द्र के कोप से ब्रजवासियों, ब्रज की गौऐं और
ब्रज की रक्षा की थी। तब ब्रजवासियों ने उनकी वाम भुजा का पूजन किया था। यह
भगवान् श्रीकृष्ण की वही वाम भुजा है।वे प्रभु कंदरा में खड़ें है और अभी
केवल वाम भुजा के दर्शन करवा रहे है। किसी को भी पर्वत खोदकर भगवान् के
स्वरूप को निकालने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। जब उनकी इच्छा होगी तभी
उनके स्वरूप के दर्शन होगे। इसके बाद लगभग ६९ वर्षो तक ब्रजवासी इस ऊर्ध्व
भुजा को दूध से स्नान करवाते, पूजा करते, भोग धरते और मानता करते थे।
प्रतिवर्ष नागपंचमी के दिन यहां मेला लगने लगा था।
२. श्री नाथ जी
के मुखारबिंद का प्राकट्य - वि.स. १५३५ में वैशाख कृष्ण एकादशी को
मध्यान्ह एक अलोकिक घटना घटी। गोवर्धन पर्वत के पास आन्योर गाँव के सद्दू
पाण्डे की हजारों गायों में से एक गाय जिसका नाम घूमर था, नंदरायजी के
गौवंश की थी. वह नित्य तीसरे प्रहर उस स्थान पर पहुँच जाती थी, जहाँ श्री
गोवर्धननाथजी की वाम भुजा का प्रकट्य हुआ था। वहाँ एक छेद था। उसमें वह
अपने थनों से दूध की धार झराकर लौट आती थी।
सद्दू पाण्डे को संदेह हुआ
कि कोई ग्वाला अपरान्ह में धूमर गाय का दूध दुह लेता है इसलिए यह गाय
संध्या समय दूध नहीं देती है। एक दिन उसने गाय के पीछे जाकर स्थिति जाननी
चाही, उसने देखा कि गाय गोवर्धन पर्वन पर एक स्थान पर जाकर खडी हो गयी और
उसके थनों से दूध की धार शिला के अन्दर जा रही है. सद्दू पाण्डे को आश्चर्य
हुआ। उसके निकट जाकर देखा तो उसे श्री गोवर्धननाथजी के मुखारविन्द के
दर्शन हुए. श्री गोवर्धननाथजी ने स्वयं सद्दू पाण्डे से कहां कि-'मेरा नाम
"देवदमन" है तथा मेरे अन्य नाम इन्द्रदमन और नागदमन भी है। उस दिन से
ब्रजवासी श्री गोवर्धननाथजी को देवदमन के नाम से जानने लगे। सदू पाण्डे की
पत्नी भवानी व पुत्री नरों देवदमन को नित्य धूमर गाय का दूध आरोगाने के लिए
जाती थी
३. श्री नाथ जी के सम्पूर्ण श्रीअंग का प्राकट्य - वि.स.
१५४९ (ई.स. १५९३) फाल्गुन शुक्ल एकादशी गुरूवार के दिन श्री गोवर्धननाथजी
ने महाप्रभु श्री वल्लभाचार्यजी को झारखण्ड में आज्ञा दी- हमारा प्राकट्य
गोवर्धन की कन्दरा में हुआ है। पहले वामभुजा और मुखारविन्द का प्राकट्य हुआ
था, अब हमारी इच्छा पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य करने की है। आप शीघ्र ब्रज
आवें और हमारी सेवा का प्रकार प्रकट करे। यह आज्ञा सुनकर महाप्रभु श्री
वल्लभाचार्य अपनी यात्रा की दिशा बदलकर ब्रज में गोवर्धन के पास जतीपुरा
ग्राम पधारे.
वहाँ आप श्री सद्दू पाण्डे के घर के आगे चबूतरे पर
विराजे। श्री आचार्यजी महाप्रभु के अलौकिक तेज से प्रभावित होकर सद्दू
पाण्डे सपरिवार वल्लभाचार्यजी के सेवक बने। सद्दू पाण्डे ने वल्लभाचार्यजी
को श्रीनाथजी के प्राकट्य की सारी कथा सुनाई। श्री महाप्रभुजी ने प्रातःकाल
श्रीनाथजी के दर्शनार्थ गोवर्धन पर पधारने का निश्चय व्यक्त किया। दूसरे
दिन प्रातः काल श्री महाप्रभुजी अपने सेवको और ब्रजवासियों के साथ श्री गिरिराजजी पर श्रीनाथजी के दर्शनों के लिए चले।
सर्वप्रथम गिरिराजजी को
प्रभु का स्वरूप मानकर दण्डवत प्रणाम किया और उनसे आज्ञा लेकर गिरिराजजी
पर धीरे-धीरे चढ़ना आरम्भ किया। जब दूर से ही सद्दू पाण्डे ने श्रीनाथजी के
प्राकट्य का स्थल बतलाया तब महाप्रभुजी के नेत्रों से हर्ष के अश्रुओं की
धारा बह चली। उन्हे ऐसा लग रहा था कि वर्षो से प्रभु के विरह का जो ताप था,
वह अब दूर हो रहा है। उनकी पर्वत पर चढ ने की गति बढ गई। तभी वे देखते है
कि सामने से मोर मुकुट पीताम्बरधारी प्रभु श्रीनाथजी आगे बढे आ रहे है। तब
तो श्रीमद् वल्लभाचार्य प्रभु के निकट दौडते हुए से पहुँच गये।
आज श्री
वल्लभाचार्य को भू-मंडल पर अपने सर्वस्व मिल गये थे। श्री ठाकुरजी और श्री
आचार्यजी दोनो ही परस्पर अलिंगन में बंध गये। इस अलौकिक झाँकी का दर्शन कर
ब्रजवासी भी धन्य हो गये। आचार्य श्री महाप्रभु श्रीनाथजी के दर्शन और
आलिंगन पाकर हर्ष-विभोर थे। तभी श्रीनाथजी ने आज्ञा दी-“श्री वल्लभ यहाँ
हमारा मन्दिर सिद्ध करके उसमें हमें पधराओं और हमारी सेवा का प्रकार आरम्भ
करवाओं”।श्री महाप्रभु जी ने हाथ जोड़कर विनती की “प्रभु !आपकी आज्ञा
शिरोधार्य है”।
श्री महाप्रभु ने अविलम्ब एक छोटा-सा घास-फूस का मन्दिर
सिद्ध करवाकर ठाकुरजी श्री गोवर्धननाथजी को उसमें पधराया तथा श्री ठाकुरजी
को मोरचन्द्रिका युक्त मुकुट एवं गुंजामला का श्रृंगार किया। आप श्री ने
रामदास चौहान को श्रीनाथजी की सेवा करने की आज्ञा दी। उसे आश्वासन दिया कि
चिन्ता मत कर स्वयं श्रीनाथजी तुम्हे सेवा प्रकार बता देंगे। बाद में श्री
महाप्रभुजी की अनुमति से पूर्णमल्ल खत्री ने श्रीनाथजी का विशाल मन्दिर
सिद्ध किया। तब सन् १५१९ विक्रम संवत् १५७६ में वैशाख शुक्ल तीज अक्षय
तृतीया को श्रीनाथजी नये मन्दिर पधारे तथा पाटोत्सव हुआ। तब कुछ बंगाली
ब्राह्मणों को श्रीनाथजी की सेवा का दायित्व सौपा गया।
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